अमरोहा की एक सुबह - 1947

आजाद सुबह की सूर्य रश्मियों के पीछे बंटवारे की आह अमरोहा के आल्हादित वातावरण में छिपी न रह सकी। विभाजन के बाद पंजाब से विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिए एक स्पेशल ट्रेन शरणार्थियों को लेकर अमरोहा भी पहुंची। इसकी सूचना पहले ही मिल चुकी थी और शहर के समाजसेवी मेहमानों को अपने दिलों में जगह देने की तैयारी शुरू कर चुके थे। बहुत-दिन पहले से ही लोग चादर तान कर घर-घर जा गेहूं का आटा इकट्ठा कर रहे थे। लोग भी स्वेच्छा से सहयोग कर रहे थे। मैं लगभग 8 वर्ष का रहा होउंगा, किन्तु सभी कुछ तो याद है। वह सब कितना अलग था एक दम से इतनी सारी नई शक्लें,अलग पहनावा और भाषा भी, जो अमरोहा में इसके पहले कभी नहीं सुनी गई थी। हमारे घर मोतीभवन के हाते में भी कुछ शरणार्थियों को टिकाने की व्यवस्था की गई थी। विभिन्न आवश्यकताओं के लिये बहुत से खपरैल के छप्पर बने हुए थे। उन्हें रिहायशी उपयोग के लिए परिवर्तित किया गया। जमीन पर पुआल फैलाकर टाट का बिछावन बना दिया गया और एक खपरैल में खाना बनाने की व्यवस्था करदी गई। उन दिनों अमरोहा में पानी के लिये हाथ के नल अथवा कुएं पर ही आश्रित होना पड़ता था। हमारे हाते में कुएं के साथ