सम्पादकीय: हम जिधर जा रहें हैं - Hindustan Posts
देश में नवरात्रि और रमजान का त्योहार है। पिछली बार होली और ईद साथ-साथ पड़े थे। इसे इत्तेफाक कहिए या प्रकृति का सौहार्द बढ़ाने का कोई प्रयास..! आज देश में बढ़ती साम्प्रदायिक घटनाएं सौहार्द को अन्धकार की गर्त में धकेल रही हैं। कट्टरपंथियों का साम्प्रदायिक सौहार्द के साथ छत्तीस का आंकड़ा है। गोरखनाथ मन्दिर की सुरक्षा में तैनात दो पीएसी जवानों पर धारदार हथियार से हमला करना राष्ट्रीय अखंडता को क्षुब्ध करता है। हमलावर के नाम से ज़्यादा महत्वपूर्ण उसके पीछे उस मानसिकता का होना है जो इन हमलावारों को सौहार्द बिगाड़ने के लिए पुष्ट करती है, उसे पालती है उसका पोषण करती है, उसे सह देती है। इसे महज दिमागी तौर पर बीमार मानसिकता वाला कहकर छोड़ देना उस समाज के लिए गुनाह है जिसमें सौहार्द बढ़ाने के प्रयास किए जाते हों, लेकिन क्या यही गुनाह है? गुनाहों की फेरहिस्त जब खुलेगी तो शायद धर्माधंकारी अपने धर्म से जुड़े हुए गुनाहगारों पर शर्मिंदा होंगे।
अमरोहा के गांव कांकर सराय में एक धार्मिक स्थल पर जाकर आगजनी कर देना जिस मानसिक दिवालियेपन का परिचायक है उस पर शर्मिंदा होना भी चाहिए। यदि एक समुदाय का मसला नहीं होता तो मामला लम्बा पड़ सकता था। लेकिन यह महज एक दल, पंथ, जाति, समाज, काल का विषय नहीं है। सवाल है क्या मानसिक दिवालियापन के शिकार आदमी की बुद्धि इतनी भ्रष्ट हो जाती है कि उसे लोगों की धार्मिक भावनाओं का ख्याल भी नहीं रहता। क्यों मानसिक रोगी अपने घर नहीं जलाता? क्या अवचेतन मस्तिष्क के संसार में साम्प्रदायिक सौहार्द नाम की कोई गुंजाइश नहीं है? यदि है तो दिखाई क्यों नहीं देती? क्यों देश में धार्मिक स्थलों को इतनी आसानी से निशाना बनाया जाता है? ऐसा कौन सा कारखाना है जो धार्मिक उन्माद बढ़ाने के लिए अपनी बाहें पसार कर बैठा है? क्या ऐसे कारखाने तैयार करने में हमारी भूमिका नहीं है? क्यों स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर, महात्मा गांधी और नेहरू के नाम पर आए दिन फूहड़ता होती रहती है? संविधान को ताक पर रख देने से उनके दिमाग़ में अपनी धार्मिक रूढ़ियों की गंध भरने से ऐसा ही समाज पनपता है,वो कभी धार्मिक स्थल पर एक सम्प्रदाय को चोट पहुंचाने के लिए महिलाओं को अश्लील धमकी देता है, कभी कश्मीर में पत्थरबाज़ी करके आज़ादी की मांग करता है तो कभी शैक्षणिक संस्थानों में घटिया मानसिकता का चोला ओढ़कर सम्प्रदाय विशेष को टारगेट करते हुए तथ्यहीन इतिहास पढ़ाता है।
पब्लिक प्लेस पर निगरानी रखने वाली पुलिस को मूकदर्शक प्रतिमा का आवरण पहना दिया गया है, उनके सामने भड़काऊ भाषण लगते हैं लेकिन नेताजी की साख जमने का भी तो सवाल है, निस्संदेह एक वर्ग के लोगों में अपने नेताओं के प्रति निष्ठा तो बढ़ ही जाती है। चुनावों की तैयार होने वाली परिपाटी साम्प्रदायिकता को लेकर संदिग्ध नहीं है वरन् स्पष्ट है जो जितना साम्प्रदायिक, जीत उतनी ही बड़ी। साम्प्रदायिकता चुनावों का आधार बन चुकी है। ध्रुवीकरण के चलते चुनाव प्रचार और भी आसान हो जाता है। समाज के सबसे घृणित चेहरे इनके अकाट्य बाण साबित होते हैं।
gzb
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